१३नवम्बर ९७ की गुनगुनी सी दोपहर निश्चय ही शुभ थी जब महिलाओं की रचनात्मक उर्जा को एक नईदिशा ,नए आयाम देने के उद्देश्य से इंदौर जैसे महानगर मे अनेकों किटी पार्टियों वाले क्लबों एवं सामाजिक संस्थाओं से अलग एक सृजनात्मक अभिरुचि की संस्था के रूप मे इंदौर लेखिका संघ की नींव रखी .आज लगभग १३साल से यह संस्था निरंतर संचालित होरही है .संघ की उपलब्धियों में सबसे अहम् यह की वे जो केवल लिखने की इच्छा करती थी वे भी इसके बेनर तले आज जम कर लिख रही है .पत्र -पत्रिकाओं मे स्थापित लेखन कर रही है ।







आज जब साहित्य हाशिये पर जा रहा है .इलेक्ट्रोनिक मिडिया के
बड़ते प्रभाव मे जब आम आदमी की साहित्य मे रूचि कम होने का खतरा बना हुआ है ऐसे संक्रमण काल मे साहित्य मे रूचि जगाने कही उद्देश्य लेकर चले थे सबके सहयोग ,सगठनं की भावना ही सफलता के मूल मंत्र मेरची बसी है .इस दृष्टी से लेखिका संघ समृध है यही हमारे उद्देश्य की सार्थकता भी है --------------------------स्वाति तिवारी







संस्थापक ,इन्दोर लेखिका संघ







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बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

बन्द मुट्ठी




आज सुबह से ही सामने वाला दरवाजा नहीं खुला था। अखबार बाहर ही पड़ा था। 'कहीं चाची....? नहीं, नहीं.....' मैं बुदबुदा उठती हूँ।

एक अनजानी आशंका से मन सिहर जाता है, पर मैं इस पर विश्वास करना नहीं चाहती....। मन-ही-मन मैं सोचती हूँ, 'रात को तो बच्चों को बुला रही थीं।' मन में शंका फिर जोर मारती है, 'इस उम्र में, पलक झपकते कब, क्या हो जाए? हो सकता है, रात देर से सोई हों और नींद न खुली हो?' मैं आश्वस्त होने की कोशिश करती हूँ, 'पर रोज सुबह पाँच बजे से खटर-पटर करने लगती हैं।' मन में शंका का बीज फिर प्रस्फुटित होता है, गैस पर चाय का पानी चढ़ा इन्हें आवाज देती हूँ।

''सुनो! उठो ना! सामने वाली चाची अभी तक नहीं उठी हैं।''

''ऊँहूँ, मुझे नहीं, तो चाची को तो सोने दो, बेचारी का बुढ़ापा है।'' ये फिर करवट बदल लेते हैं।

''नहीं! मुझे लगता है, कुछ गड़बड़ है।'' मैं सशंकित स्वर में बोलती हूँ।

''नहीं उठीं तो मैं क्या करूँ? जब उनके बच्चों को उनकी परवाह नहीं है, तो तुम क्यों सारे जमाने का ठेका लेती हो! सोने दो, रविवार है।'' ये रजाई खींच मुँह ढँक लेते हैं।

''आज रविवार नहीं, शनिवार है जनाब!''

मैं कुढ़-कुढ़ाकर किचन में आ चाय केतली में भरकर रख देती हूँ और अपना प्याला हाथ में ले अखबार के पन्ने डाइनिंग टेबल पर फैलाती हूँ। पर मन अखबार में नहीं लगता, रह-रहकर चाची के दरवाजे की आहट लेता है। मन है कि मानता ही नहीं और प्याला हाथ में ले उनके दरवाजे की बेल का बटन दबा देती हूँ।

बेल की सुमधुर ध्वनि सुनकर याद आता है, चाची बता रही थीं, इतनी मधुर ध्वनिवाली कॉलबेल उनके बेटे ने फॉरेन से भेजी थी। बेल बन्द होते-होते कराहती आवाज सुनाई दी तो राहत की साँस ली। थोड़ी देर बाद चाची ने दरवाजा खोला।

व ेचल नहीं पा रही थीं और तेज बुखार से तप रही थीं।

''अरे! चाची, तुम्हें तो तेज बुखार है? बताया क्यों नहीं।'' मैंने अधिकारपूर्वक उन्हें उलाहना दिया और सहारा दे, पलंग तक ले गई। वे थरथरा रही थीं। मैंने उन्हें रजाई ओढ़ा दी और केतली में से आधा गिलास चाय लाकर दी।

उनकी आँखें नम थीं और कृतज्ञता जाहिर कर रही थीं। उन्हें लिटाकर आई और क्रोसीन की टेबलेट ढूँढने लगी। दवाइयाँ यूँ तो जब-तब, जहाँ-तहाँ हाथ में आ जाती हैं, पर जरूरत हो, तब ढूँढ-ढूँढकर थक जाओ, नहीं मिलतीं। याद आया, बच्चों की पेरासिटामोल सिरप रखी है। अभी दो-तीन चम्मच वही दे देती हूँ, कुछ तो राहत मिलेगी और फिर कम से कम साइकोलाजिकल असर तो करेगी ही। फिर बुढ़ापा भी तो बचपन की पुनरावृत्ति ही है। सोचते हुए उन्हें दवाई दे आई।

घर के सुबह के काम, बच्चों का टिफिन वगैरह निपटाकर देखा बुखार कुछ कम हुआ, पर ठण्ड भी तो कड़ाके की पड़ रही है। मैंने अपने रूम का रूम-हीटर चाची के कमरे में लगा दिया। वे राहत महसूस करने लगीं।

चाची पर दया आ रही थी। बेचारी करें भी क्या? बताती हैं, चाचा के मरने के बाद ये फ्लैट खरीदा है, तभी से फ्लैट में अकेली पड़ी हैं। एक बेटा कहीं विदेश में है और बेटी कलकत्ता में। बेटा-बहू नौकरी करते हैं, उनके पास समय भी नहीं रहता। फिर वहाँ विदेश में मेरा मन लगेगा क्या? यह कहकर वे बात हमेशा खत्म कर देतीं।

कभी-कभी भावुक क्षणों में बोल जाती हैं, ''ये तो अच्छा हुआ, पति ग्रेच्युटी का रूपया और पेंशन छोड़ गए, जो आसरे के लिए पर्याप्त है।'' पर क्या जीने के लिए केवल यही चाहिए? आज रह-रहकर मुझे यही दार्शनिकता सूझ रही थी, ''क्या रखा है जीवन में। मरते-खपते बच्चे बड़े करो और अन्त में इस पीड़ा के साथ? क्या रखा है बुढ़ापे में? सूर्यास्त की तरफ बढ़ते जीवन सन्ध्या के दौर से गुजरते हुए परिवार की उपेक्षा का जहर? क्या नियति केवल आँगनभर धूप,खिड़की भर आकाश ही होती है?''

अक्सर महसूस करती हूँ, चाची अपने अकेलेपन को बाँटना चाहती हैं। कभी मेरे बच्चों के साथ, कभी ऊपरवाले फ्लैट के बच्चों के साथ। कभी महरी को बुलाकर, कभी टीवी चलाकर। पर आजकल के बच्चों के पास वक्त कहाँ है? कॉन्वेण्ट में पढ़ने वाली यह पीढ़ी कम्प्यूटर युग की जनरेशन है, इसके पास रिश्तों की मिठासवाला अहसास कहाँ है? अपनी ही नानी, दादी के साथ बैठ लें, तो बहुत; बेचारी चाची तो सामने वाले फ्लैट में रहती है। बच्चे अक्सर मुझे भी सलाह देते हैं; ''मम्मा, लाइफ में भावुकता नहीं चलती! वक्त कहाँ है इतना कि दूसरों के रोने रोते रहें?''

मैं अपना बचपन एक बड़े कुटुम्ब में बिताकर आई थी। पल-पल पर ममता की छाँव तले, सुरक्षा की छत्रछाया में प्यार और विश्वास के हाथ सिर पर रखे हुए। अम्मा, दादी, चाची, बड़ी माँ, बुआ सब रिश्तों की महक मेरे मन में अभी भी रची-बसी है। किसी ने बालों में तेल डाला होता, तो दूसरे ने पकड़ चोटी गूँथी होती थी। दादी का हलवा, चाची की खीर ऐसे व्यंजनों का स्वाद चखा था, पर मेरे बच्चे नौकरीवालों के घर के एकाकीपन में पल रहे थे।

चाची के लिए दोपहर मेंे मैं पतली खिचड़ी बनाकर दे आई थी। उनकी आँखों से लगातार पानी बह रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि यह पानी है या आँसू! ''चाची, आँखों में जलन है क्या?''

मेरे प्रश्न पर वे मुस्करातीं, ''नहीं रे!''

उनके ''नहीं रे!'' में न जाने क्या था? कैसी पीड़ा का अहसास! मुझे भी रूलाई आने लगी। कहाँ चला जाए यह बुढ़ापा? क्या ऐसा कुछ उपाय नहीं कि यौवन को चिरस्थायी बनाया जा सके? कितना दर्द, कितनी तकलीफें इस बुढ़ापे में, बीमारी है, अकेलापन है। क्यों हम जन्मदिन पर बधाइयाँ और दुआएँ देते हैं, जबकि हम हर जन्मदिन के बाद बुढ़ापे के करीब होते जाते हैं।

बुढ़ापे का जो जहर पड़ोसन वृद्धा पी रही हैं, उसी की काट मैंने खोजी थी, उन्हें चाची कहना शुरू करके। फिर तो वे पूरी मल्टी में चाची के रूप में लोकप्रिय हो गईं। हम पाँच-सात घरों में बड़ा अपनापन है। दोपहर में कभी चाची के घर जा बैठते, कभी रामायण का पाठ रख लेते, कभी कुछ नया व्यंजन बनता, तो चाची का हिस्सा भी निकाल लेते। पर क्या हम पड़ोसी उस आत्मा के अकेलेपन को भर सकते हैं? हाँ, कुछ पूर्ति सम्भव है, पर रिक्तता का अहसास बड़ा घातक होता है। जो कहीं न कहीं अपने चिह्न छोड़ ही देता है। हमारी आवाजाही चाची में उत्साह भरती रहती। वे जी खोलकर सबकी आवभगत करती रहतीं, पर एकान्त क्षणों में अकेलेपन की पीड़ा उन्हें सालती ही होगी।

महरी को वे अक्सर रोकना चाहतीं। कभी घुटनों में तेल मलवाने के बहाने,तो कभी किसी और बात से। पर आठ-दस घरों में काम से बँधी वह इतनी चालाकी से निकल भागती कि उसकी चतुराई की दाद देनी पड़े।

बुखार उतरते-उतरते हफ्ता भर लग गया, पर चाची इस एक हफ्ते में बिल्कुल बदल गईं। अब वे अपने फ्लैट के बाहर कुर्सी डाले बैठी रहती हैं, हर आते-जाते को रोकती-टोकती, ''अरे भाई तुम कौन हो?'' ''किसके घर जा रहे हो!'' ''इतनी सुबह-सुबह चल दिए शर्माजी?'' ''अरी ओ प्रतिभा! कल तो तू बड़ी देर से घर लौटी? कहाँ चली गई थी, मुझे तो चिन्ता खाए जा रही थी।''

चाची अपनत्व से कहतीं, पर प्रतिभा को यह नजर रखनेवाली टोका-टोकी पसन्द नहीं। वह मुँहफट झट से कहने लगी, ''आपको चिन्ता करने की क्या जरूरत है। मैं तो अपनी माँ को बताकर गई थी।''

ऐसे कितने प्रश्न कितनों से पूछतीं और टके से जवाब पातीं। इसके बाद लोग चाची का सामना करने से कतराने लगे। मेरा दरवाजा उनके सामने पड़ता था। उनकी इस हरकत पर मुझे कभी तरस आता, तो कभी क्रोध। धीरे-धीरे बिल्डिंग में उनकी उपेक्षा होने लगी और वे एक बार फिर अकेली डिप्रेशन में रहने लगीं। उन्होंने फिर कमरे में बैठ चुपचाप टीवी देखना शुरू कर दिया। सोचती हूँ कैसी अनकही पीड़ा है? कैसे झेलती होंगी चाची इस दंश को? मैं तो परिवार की एक क्षण की उपेक्षा नहीं बर्दाश्त कर सकती, पर कल किसने देखा? बण्टी और बबलू भी मेरे प्रति ऐसा उपेक्षित व्यवहार करेंगे तो? सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

क्षितिज पर खड़ी वे, अपनत्व को तरसतीं, सूनी-रिक्त आँखें लिए, जाने क्या ढूँढती रहती! मैं अकेली कितना साथ देती? सोचती एक दिन वे अस्ताचल की ओर चली जाएँगी। सिहरन-सी होती उनके बारे में सोचकर। मैं झट से भगवान को हाथ जोड़ने लगती हूँ, ''हे भगवान! मुझे बुढ़ापे के पहले ही उठा लेना। यूँ अकेले होने का कारावास मुझे एक पल को भी नहीं चाहिए। पति के सामने उनके कन्धों पर चली जाऊँ? तो बेटे-बहुओं पर भार तो नहीं बनना पड़ेगा।''

लगभग पंद्रह दिनों बाद चाची ने फिर बिस्तर पकड़ लिया। इस बार लकवे का अटैक था। अब और मुश्किल हो गया था उनके लिए। मल्टी के लोग साथ दे रहे थे। बारी-बारी से सब ड्यूटी करते। महरी की जगह फुलटाइम बाई की व्यवस्था करवा दी। चाची अब भी चुप ही रहती थीं। उनकी झुर्रियों से सिमटकर छोटी हो गई आँखें, अब निर्विकार होकर भी किसी के इन्तजार में रहतीं। एक दिन मैंने कंघी करते वक्त पूछा, ''चाची! बेटे को खबर तो करने दो, क्या सोचेंगे वे लोग, कैसे पड़ोसी हैं? माँ की खबर तक नहीं करते।'' पर वे टाल गईं, ''क्या कर लेगा आकर। उसका पता मुझसे गुम हो गया है।''

मुझे लगा, उनका कोई बेटा-वेटा नहीं है। वे केवल हम लोगों की दया से बचने के लिए बेटे के होने की बात करती रहीं। खैर, जो भी हो, तीन बजे की चाय का प्याला ले चाची के पास पहुँचती हूँ, तो प्याला हाथ में देख उनके चेहरे की तलब बेचैन कर देती है। उन झुर्रियों में अपने बुढ़ापे का स्वरूप तलाशने लगती हूँ। चाची चाय सुड़ककर मुझे लम्बी उम्र का आशीर्वाद देती हैं। पर लम्बी उम्र किसके लिए? यही प्रश्न मुझे विचलित करने लगता है। रात को चाची की साँस उखड़ने लगी। ये डॉक्टर को बुलवा लेते हैं।

''कुछ कहा नहीं जा सकता। इनकी स्थिति गम्भीर है। आप इनके बेटे को सूचना दे दीजिए।'' डॉक्टर का यह कहना हम बिल्डिंग वालों के लिए चिन्ता का विषय था।

''बेटे के आने तक अगर कुछ हो गया तो?'' मिसेस शर्मा का प्रश्न था।

''सूचना के बाद अमेरिका से आने में भी तो समय लगेगा।'' मिस्टर शर्मा ने चिन्ता जाहिर की।

चौथे माले के पाण्डेजी ने सलाह दी, ''इनकी डायरी-वायरी में ढूँढते हैं पता। सूचना तो देनी ही होगी?'' शायद चाची सबके चेहरे के भाव समझ रही थीं। उन्होंने बुदबुदाकर कहा, ''तुम सभी मेरे बच्चे हो। मुझे विद्युत शवदाह गृह में दे देना।''

''उनकी पेटी में देखें, शायद किसी रिश्तेदार का अता-पता चल जाए।'' मेरी बेटी ने सलाह दी। पर चाबी नहीं मिली और रात तीन बजे चाची चली गई। उनके जाने के बाद तकिए के नीचे चाबी मिली। पेटी खोली, उसमें कुछ कपड़ों, कुछ रूपयों के अलावा, एलबम रखे थे। एलबम खोलकर देखे जाने लगे। एक खूबसूरत गौरवर्णी माँ अपने बच्चों के साथ तरह-तरह की मुद्रा में मिली। फिर बड़े होते बच्चों के साथ प्रौढ़ होती वही महिला पहचान में आने लगी। अरे, ये सब तो चाची के ही फोटो हैं। कुछ फोटो खुद के, कुछ पति के, कुछ बच्चों के। एक एलबम और था, उनके बेटे की शादी का, खोला तो चौथे मालेवाले पाण्डेजी उसे पहचानते थे, ''अरे, यह तो मेरी ब्रांच में ही काम करता है। आजकल ब्रांच मैनेजर है, अच्छा इसका फोन नम्बर दफ्तर से ले लेते हैं। एलबम आगे देखा गया। स्पष्ट हुआ कि वह ब्रांच मैनेजर चाची का बेटा है। कुछ खरीद के बिल भी थे पेटी में। वे उन्हीं वस्तुओं के थे, जिन्हें बताकर चाची कहा करती थीं, ''ये मेरे बेटे ने अमेरिका से भेजी है।'' सारे राज खुल गए थे। एक बन्द मुट्ठी की तरह, जो खुल गई, तो खाक की कहलाती है और बन्द थी, तो लाख की, पर चाची तुम्हारी मुट्ठी सदा बन्द रही और खुली भी, तो खाक नहीं हुई। उसमें बन्द था एक माँ का आत्मसम्मान।

''तो चाची का नालायक बेटा यहीं रहता है?'' शर्माजी बोले।

''हाँ, पर अब क्या करें? खबर दें?'' पाण्डेजी ने सवाल किया। चाची की पेटी में एक डायरी भी मिली, कुछ यादों को समेटने वाली। बेटे को सूचना दे दी गई। शववाहन भी आ गया था। बेटे के आने तक एक अन्तराल पसरा था कमरे में। जहाँ थी चाची की डैड बॉडी और हवा में तैरता एक प्रश्न....क्या चाची के बुढ़ापे को अकेलेपन से बचाया जा सकता था? डायरी के पन्नों पर फरफराता है एक उत्तर, ''बेटे, कल तुम्हारा भी आएगा बुढ़ापा। यह कड़ी यूँ ही चलती रहेगी। सूई के पीछे धागा लगा रहता है।'' पर सब स्तब्ध थे, एकदम मौन.....। परदे की सरसराहट से लगता रहा कि अब कोई आया.....शायद अब....।











डॉ. स्वाति तिवारी

ई-एन1/9, चार इमली

भोपाल (म.प्र.)

फोन-094240-11334





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