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१३नवम्बर ९७ की गुनगुनी सी दोपहर निश्चय ही शुभ थी जब महिलाओं की रचनात्मक उर्जा को एक नईदिशा ,नए आयाम देने के उद्देश्य से इंदौर जैसे महानगर मे अनेकों किटी पार्टियों वाले क्लबों एवं सामाजिक संस्थाओं से अलग एक सृजनात्मक अभिरुचि की संस्था के रूप मे इंदौर लेखिका संघ की नींव रखी .आज लगभग १३साल से यह संस्था निरंतर संचालित होरही है .संघ की उपलब्धियों में सबसे अहम् यह की वे जो केवल लिखने की इच्छा करती थी वे भी इसके बेनर तले आज जम कर लिख रही है .पत्र -पत्रिकाओं मे स्थापित लेखन कर रही है ।
आज जब साहित्य हाशिये पर जा रहा है .इलेक्ट्रोनिक मिडिया के बड़ते प्रभाव मे जब आम आदमी की साहित्य मे रूचि कम होने का खतरा बना हुआ है ऐसे संक्रमण काल मे साहित्य मे रूचि जगाने कही उद्देश्य लेकर चले थे सबके सहयोग ,सगठनं की भावना ही सफलता के मूल मंत्र मेरची बसी है .इस दृष्टी से लेखिका संघ समृध है यही हमारे उद्देश्य की सार्थकता भी है --------------------------स्वाति तिवारी
संस्थापक ,इन्दोर लेखिका संघ
आज जब साहित्य हाशिये पर जा रहा है .इलेक्ट्रोनिक मिडिया के बड़ते प्रभाव मे जब आम आदमी की साहित्य मे रूचि कम होने का खतरा बना हुआ है ऐसे संक्रमण काल मे साहित्य मे रूचि जगाने कही उद्देश्य लेकर चले थे सबके सहयोग ,सगठनं की भावना ही सफलता के मूल मंत्र मेरची बसी है .इस दृष्टी से लेखिका संघ समृध है यही हमारे उद्देश्य की सार्थकता भी है --------------------------स्वाति तिवारी
संस्थापक ,इन्दोर लेखिका संघ
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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
सारा शहर ही उसकी गिरफ्त में था और हम शहर में। पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं लेना चाहिए, हम अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन मगरमच्छ ही आगे होकर आपसे बैर लेना चाहे, तो ? और वही हुआ। हम भी उसकी चपेट में आ ही गए। वहीं सर्दी-खांसी, बुखार, जब हवा ही प्रदूषित हो तो बचकर कहाँ जाइएगा। वैसे तो इन छोटी-मोटी बीमारियों की परवाह ही कब रहती है ? आती हैं, सँभले-सँभले तब तक तो चली भी जाती है। जैसे नेताजी का तूफानी चुनावी दौरा हो। लेकिन इस बार लगता था ठहरने के इरादे से ही आई थी। एक स्थायी गठबंधन सरकार की तरह। हाँ, तीन दलों का गठबंध नही तो था - सर्दी, खांसी और बुखार। हमने भी विपक्ष के नेता की तरह, उनके खिलाफ अविष्वास प्रस्ताव लाने का मन बनाया और डॉक्टर के पास चले।
क्लीनिक पहुंचकर पता चला, डॉक्टर साहब नहीं हैं। कोई इमरजेंसी थी, वहीं गए हैं और पता नहीं कब आएंगे। अब भई, इमरजेंसी है यह तो। सोचा, जब टैक्सी में इतना किराया लगा कर आए हैं, तो कुछ इंतजार ही कर लिया जाए ताकि दुबारा आने का खर्चा न हो। मगर वहाँ काफी भीड़ थी। बताया न, सारा शहर ही उसकी गिरफ्त में था। सो, बैठने के लिए भी कोई जगह खाली नहीं बची थी। कुछ देर तो सहा, लेकिन खड़े भी कब तक रहा जा सकता था। तभी याद आया कि पास में ही तो सिंग साहब का बंगला है, क्यों न वहीं चल कर बैठा जाए कुछ देर। मेल-मुलाकात भी हो जाएगी और शायद डॉक्टर साहब भी आ जाएँ तब तक।
चल तो दिए, लेकिन इन बंगलों में जाना हमें पसंद नहीं। ना, उनकी भव्यता से आतंकित नहीं होते हैं। ये आडंबरपूर्ण खोखली ऊँचाइयाँ भला हमारे मनोबल को क्या खाक गिराएंगी। दरअसल बात यह है, कि बंगला है तो एक अदद कुत्ता भी होगा वहाँ। ना-ना, डर तो उसका भी नहीं। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ? काट लेगा, यही न । तो लगवा लेंगे इंजेक्षन, जितने भी लगें, और क्या ? वो टेंषन नहीं है। प्रॉब्लम तो यह है, कि वो आपको चारों ओर से सूंघ-सांघ कर आपके इर्द-गिर्द कूदा-कादी करता रहता है। आपको चेहरे पर बड़ी सौम्यता दर्षाते हुए निहायत ही नफासत से कोमल-मीठी आवाज में बोलना पड़े कि - नो-नो, नहीं-नहीं, हटो-हटो या फिर सिट-सिट, गो-गो। पता नहीं क्यों, कुत्तों को देखते ही मुंह से अंगरेजी झरने लगती है। जबकि इधर आपका बड़ा मन कर रहा है, कि एक जमा ही दें कसकर पीछे से, ताकि चला ही जाए प्याऊँ-प्याऊँ करता हुआ। आखिर कुत्ता है तो कुत्तों की तरह ही रहे न।
सोचते-विचारते चले जा रहे थे, कि हमने स्वयं को सिंग साब के गेट पर खड़े पाया और भों-भों की आवाज से हमारी विचार श्रृंखला टूटी। वही हुआ, जो सोच रहे थे। हमें देखते ही एक कददावर कुत्ता भौंकता हुआ हमारी और लपका। हालांकि हम सुरक्षित थे, क्योंकि गेट के इस पार थे और गेट बंद था। आवाज सुनकर उसके मालिक सिंग साब बाहर निकले। उन्हें देख वह पहले तो उनके कदमों में लोट गया, फिर उठ कर अगले दो पंजे उठाकर उनकी छाती पर टिकाए और मुंह चाट गया। हमें बड़ी जोर की उबकाई आई। वे वही - ''नो-नो, नॉटी बॉय'' कहते हुए गेट तक आए और हमें अंदर आने को कहा।
हम अंदर आए, वह अब भी हमारे चारों ओर चक्कर काटता, कभी आगे कभी पीछे आ-जा रहा था। मिसेस सिंग पूजा गृह में थी। बैठक में आ कर बैठते ही शुरू हो गया उनका कुकुर पुराण - ''बड़ा ही नॉटी है टैंगो। मेरे बिना तो रहता ही नहीं। खाना खाएगा तो मेरे हाथों से ही नहाएगा तो मेरे साथ। बिस्तर है उसका बकायदा, लेकिन रात में मेरी रजाई में ही घुसकर सोएगा।''
हमारा जी मिचलाया और हमने पेट से उठी उस लहर को छींक का रूप देकर नाक, मुँह ढँकते हुए ''सारी'' कहा।
वे आगे बोले- सुबह-सुबह उठा देता है, फिर घुमाने ले जाओ। और ये सोफा (जहां हम बैठे थे) तो उसकी पसंदीदा जगह है। टी.वी.चलता रहता है, तो यहीं बैठता है।''
हमें लगा सैकड़ों कीटाणु हमारे शरीर पर रैंग रहे हैं। सोफे पर तो बैठे ही थे, जमीन पर हमारी साड़ी दबा कर वह बैठ चुका था। उसकी इस असहजता को हमने खाँसी में बदल दिया। सोचा जाकर नहाना पड़ेगा, रात में ही, फिर चाहे तबीयत खराब ही हो जाए और भी। और साड़ी तो देनी ही होगी ड्रायक्लीन के लिए।
''इतना-सा था, जब लाए थे'' - उन्होंने दोनो हाथों को एक के ऊपर एक कुछ ऊँचाई पर गोल करते हुए, जैसे हाथों के बीच ऊन को गोला हो, उसका पहले का आकार बताया। काफी बड़ी रकम खर्च करनी पड़ी, दस-बारह हजार के लगभग। आखिर है भी तो विषुद्ध नस्ल का। यू.के.के. क्लब से जुड़ा हुआ, जिसकी ब्रांचे इंडिया में भी हैं। सारे पेपर कम्पलीट है इसके, प्रमाण के लिए।''
हम अंदर के गुबार को रूमाल से नाक - मुँह दबाए सुन रहे थे। सर्दी-खाँसी की उपयोगिता पहली बार समझ में आई। इस बहाने आप बहुत कुछ ढँक दबा सकते हैं। गला खराब होने का अच्छा बहाना था ही, सो हूँ-हाँ से भी मुक्ति।
''बकायदा इंस्ट्रक्षन दिए थे उन्होंने। एक पूरी बुकलेट आती है, कि इसे कैसे ट्रीट किया जाए। जैसे, कि यह आपके प्यार और सामीव्य का भूखा है। आपका अच्छा सहचर साबित हो सकता है। सर्दी-गर्मी में इसका विषेष ध्यान रखा जाए। आखिर विदेषी है न, तो ज्यादा गर्मी बर्दाष्त नहीं कर पाता। सो, गर्मियों में इसके लिए कूलर की विषेष व्यवस्था रहती है। ठंड भी यदि ज्यादा हो, तो हीटर भी ऑन करना पड़ता है। वैसे तो पूरा बिस्तर है उसके लिए अलग से। जमीन पर सोने से ठंड लग जाती है। इतना बचाकर रखने पर भी, कभी गलती से ठंडा पानी वगैरह पी लेने से, ठंड में एकाध बार तो इसे सर्दी जुकाम हो ही जाता है। तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता है। वैसे भी रेगुलर चेकअप के लिए ले जाते ही रहते हैं। सारे डोज, टीके, दवाइयाँ वगैरह समय पर करते रहते हैं। नहाने के लिए विषेष शैम्पू, टब, टॉवेल, टेल्कम पावडर, कंघी वगैरह हैं। सर्दियों में तो गर्म पानी में नहला कर, टॉवेल में लपेट पर कंघी करते हैं। बाल, नाखून भी छाँटते-काटते रहना पड़ता है। खाने-पीने का भी पूरा ध्यान रखते हैं कि पूर्णतः पौष्टिक, संतुलित आहार हो। दूध-ब्रेड,बिस्किट,नॉनवेज, अब तो सब कुछ खा लेता है। बस, खिलाना पड़ता है अपने हाथों से। जब तक हथेली पर रखकर न खिलाएँ, कुछ खाता ही नहीं। जब छोटा था, दांत भी नहीं थे पूरे तो दूध-दलिया वगैरह देना पड़ता था। दलिया भी स्पेषल बनता था इनके लिए। दाले-सब्जियाँ डालकर, ताकि भरपूर प्रोटीन-विटामिन-मिनरल्स मिल सकेंे। बड़े प्यार और लगन मेहनत से पाल-पोस कर बड़ा किया है इसे। एक-एक इंस्ट्रक्षन का अक्षरषः पालन करते हुए।'' और वे प्यार से उसे सहलाने लगे, जो उचककर उनकी गोद में बैठ चुका था। उसके बालों में अँगुलियाँ फिराते हुए उनकी आँखों और चेहरे पर वात्सल्य का नियाग्रा झर रहा था।
तभी उलझे बालों, टखनों से ऊँची साड़ी पहने, एक तेरह-चौदह वर्ष की लड़की, अपने रूखे-खुरदरे हाथों से पानी की टे्र लेकर आई, जो निष्चित ही उनकी नौकरानी थी। पानी की मुझे सख्त आवष्यकता थी, इतनी घुटन के बाद। मैंने झट से पानी का गिलास उठा लिया।
उन्होंने उसे चाय बनाने का आदेष दिया और फिर बोले - ''यह हमारी नई नौकरानी है। अब इतने बड़े घर में एक सर्वेंट तो चाहिए ही। तो, इसे रख लिया पूरे समय के लिए। पहले बर्तन वाली, कपड़े वाली सब अलग-अलग थीं। एक का इंतजार करो, फिर दूसरी का इंतजार, दिन भर इंतजार, कोई आए, कभी कोई न आए। सबका अलग-अलग वेतन, तो खर्चा भी ज्यादा। इस सारे झंझट से मुक्ति पाने के लिए, उन सबकी छुट्टी कर, इस एक को रख लिया है। चौबीसों घंटों के लिए। यहीं रहती है, काम करती है। कुछ लोग हैं, जो बिहार आदि दूरदराज के क्षेत्रों से बच्चों को ले आते हैं, मजदूरी के लिए। उन्हें डेढ-दो हजार दिए थे कमीषन। उन्होंने ही बताया कि इसके बैंक खाते में चार-पांच सौ रूपए महिना डालते जाना। फटे-पुराने कपड़े दे देना पहनने को और खाने को मोटा चावल। खूब डटकर काम कराना सख्ती से। सुबह से देर रात तक। नर्मी, दया बिल्कुल नहीं दिखाना, वर्ना सिर पर चढ़ जाएगी। तो सुबह पांच बजे से रात दस बजे तक काम करती रहती है लगातार। मोट चावल इसके लिए अलग से लाकर रख दिए हैं। सुबह-षाम एक-एक गिलास नापकर दे देते हैं, उबाल कर खा लेती है। बरामदे में टाट डालकर सो जाती है। कभी-कभार तबीयत खराब होने का बहाना भी करती है, मगर हम ऐसे नखरों पर ध्यान नहीं देते।'' उनके चेहरे पर ऐसे संतुष्टि के भाव थे, जो एक बड़ा फायदे का सौदा पटा लेने पर होते हैं, खुर्राट व्यवसायी के चेहरे पर।
इधर हम सोच रहे थे, कि वे इंस्ट्रक्षन के तो पक्के हैं, पूरे।
तब तक वह चाय ले आई थी। हमारे मुँह का स्वाद तो पहले ही कड़वा हो चुका था, फिर भी चाय तो पीनी ही थी, षिष्टाचारवष। चाय पीते हुए हमारी नजर चलते हुए टी.वी. पर पड़ी। एक विज्ञापन आ रहा था, जो बता रहा था, कि किस तरह आदमी कुत्तई पर उतर आता है - ''टेस्ट का पॉवर'' के चलते। यह ''टेस्ट'' कोई भी हो सकता है - सत्ता का, धन का, शक्ति का, अहं का, सिर्फ किसी एक बिस्किट विषेष का ही नहीं।
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