१३नवम्बर ९७ की गुनगुनी सी दोपहर निश्चय ही शुभ थी जब महिलाओं की रचनात्मक उर्जा को एक नईदिशा ,नए आयाम देने के उद्देश्य से इंदौर जैसे महानगर मे अनेकों किटी पार्टियों वाले क्लबों एवं सामाजिक संस्थाओं से अलग एक सृजनात्मक अभिरुचि की संस्था के रूप मे इंदौर लेखिका संघ की नींव रखी .आज लगभग १३साल से यह संस्था निरंतर संचालित होरही है .संघ की उपलब्धियों में सबसे अहम् यह की वे जो केवल लिखने की इच्छा करती थी वे भी इसके बेनर तले आज जम कर लिख रही है .पत्र -पत्रिकाओं मे स्थापित लेखन कर रही है ।







आज जब साहित्य हाशिये पर जा रहा है .इलेक्ट्रोनिक मिडिया के
बड़ते प्रभाव मे जब आम आदमी की साहित्य मे रूचि कम होने का खतरा बना हुआ है ऐसे संक्रमण काल मे साहित्य मे रूचि जगाने कही उद्देश्य लेकर चले थे सबके सहयोग ,सगठनं की भावना ही सफलता के मूल मंत्र मेरची बसी है .इस दृष्टी से लेखिका संघ समृध है यही हमारे उद्देश्य की सार्थकता भी है --------------------------स्वाति तिवारी







संस्थापक ,इन्दोर लेखिका संघ







यह ब्लॉग खोजें

Powered By Blogger

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

सपने
ये सपने क्षणभंगुर
है साबुन के बुलकुले
पल में बनते पल में टूटते
हैं रेत के महल।

एक कोमल हवा के झोंके से गिर जाते,
इस दिल में चाह जगाकर
रात के गुमनाम अँधेरों में खो जाते,
ये सपने क्षणभंगुर।

चोरी से आँखों के रास्ते दिल में बसकर,
अचानक एक पल की करवट से टूट जाते,
पर ये आँखें एक सपने के टूटने के बाद,
फिर गढ़ लेते है एक नया सपना
उसके पूरा होने की चाह में।

-- रूचि बागड़देव

















स्मृतियाँ

जैये नीले समंदर पर
उठती-गिरती उज्जवल लहरें
जैसे सुख के चमकीलें दिन
और दुख की स्याह रातें

कितना अजीब है प्रकृति का क्रम
एक रंग में से उभरता दूसरा रंग
जीवन भी रंग बदलता है, हर पल,हर कदम
पर तुम अकेले कहाँ, जीवनसाथी है तुम्हारे संग,

मज़ा है तब जब हो आपसी विश्वास
और प्यार की मिठास
किए जाओं कर्म,मन रखना साफ

ईश्वर भी तलाशता है सुन्दर घरौंदे
जहाँ दें वह आशीष की सौगात
दुरियाँ हो चाहे कितनी ही
महसूस होते हो आसपास

क्योंकि मन में बसी है प्यारी याद।

-- रूचि बागड़देव







समय
बंद मुठ्ठी ये फिसल जाता है समय
और हम सोचते रहते हैं
कि वक्त हमारे साथ है
पर, जब खोलते हैं मुठ्ठी तो लगता है
कि समय हमारे पास बहुत कम है
लेकिन तभी पता चलता है कि
समय हमारी मुठ्ठी ये
रेत की तरह फिसल गया
और हम देखते ही रह गए।
हम सोच रहे थे
कि सफलता के शिखर पर पहुँच जाएंगे
परंतु, फिर समय की कमी के कारण
हम पीछे ही रह गए
और जमाना देखता ही रह गया।
हम सोच रहे थे, कि
सफलता कैसे प्राप्त की जाए?
फिर सोचा,
क्यों न समय को सहेजकर रखा जाए
परंतु, तभी याद आया,
क्या समय हमारे पास है
जब यह सोचा, तो याद आया
कि सचमुच समय हमारी मुठ्ठी से
रेत की तरह फिसल गया
और हम पीछे ही रह गए।
पर, जब आँख खुली तो मैंने पाया,
कि वह एक स्वप्न है,
समय मेरे साथ है
और मैं समय के साथ हूँ
और सफलता मुझे
समय की सीढ़ियों पर बुला रही है
अब मैंने पाया
कि समय मेरी मुठ्ठी में है।
-- रूचि बागड़देव

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें