१३नवम्बर ९७ की गुनगुनी सी दोपहर निश्चय ही शुभ थी जब महिलाओं की रचनात्मक उर्जा को एक नईदिशा ,नए आयाम देने के उद्देश्य से इंदौर जैसे महानगर मे अनेकों किटी पार्टियों वाले क्लबों एवं सामाजिक संस्थाओं से अलग एक सृजनात्मक अभिरुचि की संस्था के रूप मे इंदौर लेखिका संघ की नींव रखी .आज लगभग १३साल से यह संस्था निरंतर संचालित होरही है .संघ की उपलब्धियों में सबसे अहम् यह की वे जो केवल लिखने की इच्छा करती थी वे भी इसके बेनर तले आज जम कर लिख रही है .पत्र -पत्रिकाओं मे स्थापित लेखन कर रही है ।







आज जब साहित्य हाशिये पर जा रहा है .इलेक्ट्रोनिक मिडिया के
बड़ते प्रभाव मे जब आम आदमी की साहित्य मे रूचि कम होने का खतरा बना हुआ है ऐसे संक्रमण काल मे साहित्य मे रूचि जगाने कही उद्देश्य लेकर चले थे सबके सहयोग ,सगठनं की भावना ही सफलता के मूल मंत्र मेरची बसी है .इस दृष्टी से लेखिका संघ समृध है यही हमारे उद्देश्य की सार्थकता भी है --------------------------स्वाति तिवारी







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गुरुवार, 23 सितंबर 2010

एक नया रिश्ता




डा. स्वाति तिवारी



'' हॉल के बीच वीच वाले खम्भे पर गेंदे के फूलों की लड़ियाँ बॉधवा लेते हैं, क्यों काका ? ''

'' हॉ बिटिया, अच्छे लगेंगे । ''

'' यहाँ रंगीन बल्बों की झालरें ठीक रहेंगे,और गैट के पास हरे-भरे पौधों से सजावट करवा देते हैं । ''

'' बिटिया, वो टेंटवाला आया है, लाइट कितनी लगवानी है ?'' रामू काका ने अनुभूति को बताया ।

'' आई काका,वहीं आकर बताती हॅू । ''

'' ठीक है बिटिया, जल्दी,जल्दी आकर बता दो ये जल्दी मचा रहे हैं । ''

'' हाँ, अब बताइए ! देखिएं उपर शामियाने में बडेत्र बल्ब और गार्डन के बाउण्ड्री वाले पौधों पर और इन सभी प्लांट्स पर टिमटिमाते लट्टेू ।''अनुभूति ने टेंटवाले से सजावट व लाइटिंग का निर्धारण सा करते हुए कहा ।

'' मैडम, यह तो बहुत कम हैं । पिछली बार तो इससे ज्यादा लाइट लगवाई थी । '' टेंट हाउस वाला अपना बिजनेस देख रहा था ।

'' नहीं.........नहीं..........माँ को ज्यादा जगमगाहट पसंद नहीं हैं ।''

'' अच्छा ..........जैसा आप ठीक समझें, पर वेलकम वाले गेट पर रोशनी जरूरी होती है । अगर आप कहें .........''

'' नहीं, नहीं । बस, बहुत है ।'' अनुभूमि ने झुंझलाते हुए कहा ।

'' अरे अनुभूति बेटा,प्रवेशद्वार पर कलश कौन संभालेगा ? बड़ी बुआ पूछ रही थीं । एक वे ही तो आई थी ं इस शादी में, अनुभूमि की मदद करने ।

'' मैं संभाल लूंगी बुआ ! ''अनु ने बच्चों से उत्साह के साथ कहा ।

''पर बेटा, क्या ऐसा करना ठीक रहेगा ? बुआ ने संशय के साथ पूछा था । वही व्यवस्थाए सब कुछ वही है । वैसा का वैसा, किसी चौखट पर बंधे चित्र की तरह, पर पात्र बदल गए हैं । हॉल के उसी लैम्प के प्रकाशवृत्त के नीचे आज अनुभूति खड़ी है, कल जहाँ माँ खड़ी थी । तपती धूप में कलसाता चेहरा लिए । गेस्ट हाउस के सामने वही छोटा सा बंगला है, जहाँ मधुमालती की झूलती लता थी,जूही और रातरानी से महकता एक छोटा सा घर, जो खुद भी महकता था, कभी अनुभूति की बातों से तो कभी पापा की बाँहों में माँ की सॉसों से । आज भी वहीं बँगला है, बीस वर्षो के अन्तराल के साथ, जहाँ मधुमालती की लता भी है और जूही एवं रातरानी की खुशबू भी । पर यदि नहीं है तो बीस वर्षो से वहाँ जीवन की सजावट नहीं है । इसलिए नहीं है,क्योंकि निगल गया था मृत्यु का अजगर उन बाँहों को, जो माँ और बेटी को अपने में समेट लेती थीं । हाँ, पापा के ना होने का अहसास पल-पल महसूस होता था उन्हें ।

सूनापन सब तरह से लगता रहता था, कभी माँ की सफेद साड़ी में, सूने रह गए खाले गले में हाथों की कलाई में । पर जीवन है जिसे इन सबके बगैर भी वे दोनों जी रही थी । क्यों........और कैसे, यह अलग बात है, पर जी रही थीं वे दोनों, अपनी पूरी जिवीविषा के साथ । एक दूसरे का सहारा बनकर

एक ऐसी कहानी जो कहानी है ही नहीं, क्योंकि इसमें घटनाओं और पात्रों का स्थूल या सूक्ष्म अंकन महत्वपूर्ण नहीं है । यह किस्सागोई भी नहीं है, ना ही यह बयानबाजी है । पर इसमें जो है, जीवन का मर्म है, जीवन मूल्य है और संवेदना का स्पर्श है ।

जे दृश्य अभी सामने था, वह शादी की तैयारी का है । एक ऐसे विवाह का, जिसको बेटी सम्पन्न करा रही है, अपनी माँ की शादी करवा रही है । वह जुटी हुई है जूझते हुए उन तमाम विरोधों और तानों से, जो परिवार के ही लोग दे रहे हैं । ऐसे लोग, जो उसके अपने कहलाते है, दादी, काका-काकी, नाना-नानी, माम जैसे कितने ही रिश्ते हैं जो उसकी पीड़ा से दुखी तो थे, पर पीड़ा से मुक्त होने देना नहीं चाहते थे ।

क्या रिश्ते वही होते हैं जो खून के संबंधों से जुडे होते हैं ? क्या वे रिश्ते नहीं हैं जो माँ के सहकर्मी अकाउण्ट सेक्शन वाले गुप्ता अंकल से हैं । माँ की बुजुर्ग सहकर्मी मिसेज जोशी ने जो उन्हें दिए हैं अनुभूति उन्हें भी नानी कहती है । सब खुश हैं, अनुभूति की मदद कर रहे हैं । इसी रिश्तों की नई परिभाषा ने अनुभूति में दुगने उत्साह का संचार कर डाला था जब अनुभूति ने गुप्ता अंकल से माँ की शादी की बात की थी, उसने अंकल से राय ली थी ।

अबकी बार जब अनुभूति मुम्बई से इंदौर आई तो उसे माँ में एक बदलाव महसूस हुआ था । माँ चुपचाप रहती हैं घर में । उदास माँ अनुभूति को अच्छी नहीं लगती । एक दिन माँ ने उसे बताया कि घर में बोलने की आदत ही नहीं रही, किससे बोलू ? बातचीत के अंतरंग क्षणों में एक रात माँ रो रही थी । यह कहते हुए कि अब उन्हें यहाँ अकेले रहना अच्छा नहीं लगता । '' अनुभूति, जानती है तू, आजकल हमारे जो नए बॉस आए हैं ना, वे बिलकुल तेरे पापा जैसे लगते हैं । ''

''अच्छा दिखने में ? ''

''हाँ । वही हाइट,हेल्थ,वैसा ही लुक । काम में भी वही स्टाइल है ।''

'' तुमसे बातें हुई ? ''

''हाँ, कभी-कभी । ''

''शादीशुदा हैं ? कैसी है उनकी पत्नी उनके बच्चे? अनुभूति को जिज्ञासा हुई।

''उनसे बात करने पर मुझे लगता है, जैसे मैं उन्हें पहले से जानती हॅू । माँ के चेहरे पर एक ठहरा हुआ शान्त भाव था ।

''पत्नी, बच्चों से मिली क्या ? ''

''नहीं रे..........बिचारे के बच्चे तो अमेरिका में सेटल हैं और पत्नी तलाक ले गई है । ''

''अच्छा......... ?''

'' माँ, क्या तुम्हें वे पसन्द है ?'' अनुभूति ने सीधा सपाट प्रश्न कर डाला ।

''हट पगली ! इस उम्र में क्या पसंद ? ''

अनुभूति अगले दिन गुप्ता अंकल से मिल थी '' अंकल, माँ एकदम अकेली हो गई है, मेरी शादी के बाद से । ''अनुभूति ने बात आरंभ की ।

'' हाँ बिटिया ! जानता हॅू, भाभी एकदम अकेली हो गई हैं, पर लगता है वे अभी भी उसके साथ है ।''

'' हाँ अंकल ! वे अब भी पापा की उपस्थिति को महसूस करती हैं, क्योंकि पापा उनके मन में हैं । उनकी यादों में है, उनकी बातों में है ।'' अनुभूति ने नम आँखों के कोर पोंछे थे ।

''अनुभूति बेटा, जीवन यादों से लम्बा नहीं होता, छोटा हो जाता है । रूक जाता है उसमें समय का प्रवाह । '' गुप्ता अंकल कहने लगे ।

'' जी............ मैं समझती हॅू इस ठहराव को । अपने जन्म से लेकर विवाह तक मैं भी उसी ठहराव का हिस्सा थी । जीवन का प्रवाह महसूस ही नहीं हुआ था, पर जीवन चलने के साथ चलता है । यह बात शादी के बाद ही समझ पाई हॅू । पर माँ अब भी वहीं हैं । वह यह बात समझना ही नहीं चाहतीं । '' अनुभूति के स्वर में गंभीरता थी,'' अंकल, माँ घर में एकदम चुपचाप रहती हैं ।''अनुभूति ने समस्या रखी तो आश्चर्य हुआ गुप्ता जी को ।

'' तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा अनुभूति,भाभी दफ्तर में लगातार बोलती हैं । स्टाफ के लोग तरस खाकर सुनते हैं, उनके अतीत को, पर कब तक ?''

''पर ऐसा कैसे हो सकता है अंकल ? ''

''उन बातों को रहने दो अनुभूति ! दरअसल अब उनमें अलग खड़े रहने की ताकत कम होती जा रही है । यादों के वे प्रसंग उन्हें बार-बार वहीं ले जाते हैं जहाँ दर्द ही उनके निकट होता है । आज दर्द के इतने निकट न होने पर भी इतनी जल्दी और बार-बार वहीं कैसे पहुंच जाती है वे ?'' अंकल माँ को लेकर काफी चिन्तित लगे ।

'' ऐसा क्यों अंकल ? कहीं माँ मेण्टल प्रॉब्लम में तो नहीं हैं वे डिप्रेशन में तो नहीं ? '' अनुभूति परेशान हो उठी ।

'' बेटे, अभी तो वे डिप्रेशन में नहीं हैं पर शायद लम्बे समय तक अकेली रहेंगी तो हो सकता है । अक्सर मैं महसूस करता हॅू, जाने कैसे नए सिरे से भाभी के फफोले रिसने लगते हैं ! बोलते हुए वे कभी-कभी कातर हो जाती हैं । अतीत की दारूणता मेंे उनके लाचार हाथ बढ़ने लगते हैं । उन्हें स्मृति में भटकते हुए देखते हैं सब लोग । भाभी के जीवन में दर्द के आवेश का रॅूंधा हुआ क्षण बार-बार आ जाता है । मैं समझता हॅू इसका कारण यह है कि पहले उनके पास तुम थीं । उनके जीने का सहारा, उनके भविष्य के रूप में । उनके जीवन का मकसद थीं तुम । घर आबाद था । तुम उनके अकेलेपन को बांटती थीं, रिक्तता की पूर्ति बनकर । वे तुमसे इतना बोल - बतिया लेती थीं कि उनके मर के, उनके दिलो-दिमाग के सभी प्रवाह तुम्हारे रूप में गतिवान थे । वह भी मनुष्य हैं और एक स्त्री जो भावनाओं,विचारों और संवेदनाओं से भरी हुई, जिसका आदान-प्रदान एक सहज प्रवृत्ति है । उनका वही प्रवाह एकाकी हो गया, तुम्हारी शादी के बाद । घर मंें अकेली संवादविहीन रहती हैं, इसीलिए दफ्तर में उसकी पूर्णता ढूंढती हैं । पर लोग कतराने तथा उकताने लगें,यह तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा ।''

'' जी अंकल, क्या हम माँ को अकेलेपन से बचा सकते हैं ? अंकल मैं सोचती हॅूं हम माँ को विवाह के लिए तैयार करें । ''

''पर इस उम्र में ?

'' अंकल, आपके ब्रांच मैनेजर मिस्टर शर्मा भी तो तलाकशुदा हैं ।क्यों ना उनसे बात की जाए ? ''

'' पर क्या वे तैयार होंगे ?

मैं बात करना चाहती हॅू उनसे, अभी इसी वक्त । ''

'' बेटे, बात मैं कर लूंगा , पर क्या भाभी तैयार हो जाएगी ? क्या तुम्हारे पति, सास ससुर समाज इस बात को स्वीकारेंगे ?

'' मैं सबको समझा लूंगी । दुनिया कहाँ से कहाँ पहुंच गई है । ''

'' बहुत अच्छा बेटा ! तुम धन्य हो, माँ के बारे में इतना सोचती हो । भाभी चाहती तो 20 वर्ष पहले, जब वे युवा थीं तभी दूसरी शादी कर सकती थी ं। पर तब तुम थीं, एक दायित्व की तरह । पर अब भी वे मात्र बयालीस वर्ष की हैं, एक लम्बा अकेलापन उनके सामने है, हम बचा सकते हैं उन्हें । ''

घर जाकर अनुभूति माँ से बात करती रही और उसने उन्हें मिस्टर शर्मा के प्रति सकारात्मक सोचने पर मजबूर कर दिया । अनुभूति को लगा था, माँ बुरी तरह रिएक्ट करेंगी । पर माँ मान गई । नहीं माने थे दादा-दादी,नाना-नानी । केवल बड़ी बुआ ने हाँ की थी ।

अनुभूति ने माँ के विवाह की तमाम जवाबदारी ले ली । अनुभूति के विवाह के वक्त मैने महसूस किया था कि अनुभूति और उसकी माँ के अन्दर कितनी ही इच्छाएं दबी-कुचली हुई हैं । माँ में भावनात्मक प्रवाह को बेटी की खुशी बनकर प्रवाहित होते देखा था मैने ।

'' अरे इला.........ये देख, लाल साड़ी कितनी सुन्दर है । '' वे अपने तन पर पल्ला डाल शीशे में देख लेती हैं उनके चेहरे पर एक अजीब हलचल होते देखी थी मैने ।

'' तेरे अंकल होते ना तो जरूर मैं यह साड़ी पहनती शादी में । '' उनके मन में एक उदासीनभरे इससे पहले ही उन्होंने उसे पैक करवा लिया अनुभूति के लिए ।

लल,पीले,हरे-भरे रंग उनके चेहरे के उतरे रंग को बदरंग ना करें, इसीलिए उन्होंने वे तमाम शोख रंग बेटी के लिए ले लिए । मैने टोका था उन्हें'' आजकल इतने शोख कलर नहीं चलते । ''

अनुभूति ने रोक दिया था मुझे, माँ को टोकना मत, बरसों से दबे रंग उनमें जागे हैं । उनके अन्दर के उत्साह को चोट लगेगी यह जानकर कि वे दुनिया से पिछड़ रही हैं । ''

मैं अवाक थी, बेटी के मन में माँ के प्रति इस लगाव और समझ को देखकर । उन माँ बेटी को मैने पूरे विवाह उत्सव में खुश होते देखा था, और पाया था वहां 20 वर्ष पहले अतीत बन चुका एक व्यक्ति हर पल मौजूद था । एक पति, एक पिता को यॅूं हर साँस के साथ उनके दिल में धड़कते पाया था मैने जो लगातार जिन्दा रहा उनके ख्वाबों में । उस चमकको आँखों में आते-जाते देखा है मैंने कभी वह साड़ी के कलर में याद आ जाता तो कभी भोजन की लिस्ट,मिठाई तय कर रहा होता, तेरे पापा को यह कलर पसन्द था, अमन का सूट इसी कलर का लेते हैं, क्यों अनुभूति !

''हाँ ममा, पापा को टाई में रेड कलर पर ज्यामेट्रीवाला डिजाइन पसन्द था ना, बस वही ले लो ।

इस तरह वे हर जगह मौजूद थे । पर कब तक ?अनुभूति की पसन्द अमन की पसन्द में बदल गई थी । अनुभूति का बचपन विक्की में लौट आया था माँ, मिसेज वैद्य उम्र के अदृश्य दस वर्ष और आगे बढ़ती चली गई । तमाम अटकलों,विवादों और ना नुकर के बाद उन्होंने अनुभूति और अमन की इच्छा कहकर पुनर्विवाह स्वीकारा था । ढलती उम्र में एक नए रिश्ते का सच ।

माँ की हाँ होते ही अनुभूति और अमन अचानक बड़े हो गए थें, विवाह का दायित्व निभाने को तैयार । एक साधारण समारोह में विवाह सम्पन्न हुआ । पूरा स्टाफ शादी में शामिल हुआ था । हर कोई रिश्ते को अपनी नजरों से तौल रहा था । पर मुझे लगा, कितना पवित्र था वह रिश्ता,जिसे बड़े होते बच्चों ने रोपा था । अनुभूति को मिले थे नए पिता और विक्की को पहली बार नाना । एक सम्पूर्णता पा जाने की आत्मतृप्ति थी सबके चेहरे पर ।

मिसेज वैद्य के मन से नए परिवार को लेकर संशय के सभी बादल छँट गए थे ''अनुभूति, बहुत सुलझे हुए हैं मिस्टर शर्मा,बिल्कुल तेरे पापा की तरह । ''

विवाह के बाद सब कुछ सामान्य-सा हो चला था । अनुभूति और अमन ने उन्हें पहाड़ों पर घूमने और देवी -दर्शन को भेजा था '' मम्मा आप दर्शन कर आइए, मैने मन्नत मानी थी । ''

हफ्ते भर की यात्रा थी । लगभग रोज ही अमन अनुभूति से वे फोन पर बात करते थे । पर ईश्वर जाने क्या चाहता था । लौटतिे वक्त उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया था । मिस्टर शर्मा एक नर्सिंग होम में एडमिट थे । मिसेज शर्मा...........।

सुबह-सुबह अनुभूति का मेरे पास फोन आया था '' इला, माँ और पापा का एक्सीडेंट हो गया है ।'' वह रूआँसी आवाज में इतना ही बोल पाई और रूलाई फूट पड़ी थी ।

''क्या ?''

'' हाँ इला, एक अस्पताल से फोन आया है, पापा सीरियस है और माँ....। तुम ताला तोड़कर घर खोल लो तैयार रखना मैं लेकर आती हॅू ।

श्रात तक अनुभूति और अमन लेकर लौटे थे माँ की डेड बॉडी । तमाम व्यंग्यों,तानों, उलाहनों के बावजूद एक दृढ़ निर्णय लेने वाली अनुभूति को यॅूं बिलखते देखा था मैने । जीवनभर अजीज रही माँ, बचपन से लेकर आज तक सब कुछ रही माँ, एक दोस्त, एक संरक्षक सभी कुछ थी । वहीं आज केवल डेड बॉडी बन गई थी । उसने कितने चाव से माँ के जीवन में रंग भरना चाहे थे, पर विधाता.......।

अनुभूति और अमन माँ का अंतिम संस्कार करने की तैयारी जल्दी-जल्दी कर रहे थे ।

माँ को सुहागन के वेश में तैयार किया गया । सजी सँवरी उनकी देह, उनका चेहरा इतना सजीव लग रहा था कि लगता है । ' पर सब-कुछ शान्त था । वह शान्त सौम्य चेहरा ! उस चेहरे को मैं कभी नहीं भूल पाई । क्या था उस चेहरे में ? आत्मतृप्ति थी, आत्ममुग्धता थी, सुहागन की पवित्रता थी, एक संतृप्त चमक और और असीम शांति थी ।

अनुभूति और अमन रात को ही फिर चले गए । लौटे थे पन्द्रह दिनों के बाद पापा को नर्सिंग होम से लेकर । एक माह रही अनुभूति उनके पास ।वह दिन है और तब से लेकर आज का दिन है, वह नया रिश्ता अब भी महक रहा है । विक्की अब नवीं कक्षा में है । अनुभूति के दो बच्चे और हैं, एक बेटी पारूल और छोटा बेटा राहुल ।

गर्मी की छुटि्टयों में मिस्टर शर्मा का बंगला पूरे समय चहकता है । गॅूंजती है वहॉ विक्की, पारूल और राहुल की किलकारियाँ ।

''नानाजी, मैं पिज्जा खाउँगा । '' यह शायद विक्की है ।

''नानाजी, मुझे घोड़ा-घोड़ा खेलना है । '' और मिस्टर शर्मा राहुल को पीठ पर बैठाकर बाहर के लॉन में घोड़ा बन जाते हैं ।

''पापा,क्या कर रहे हैं आप ? अनुभूति डाँटती है उन्हें ''ये कोई उम्र है, इस तरह घोड़ा बनने की । ''

''कुछ नहीं अनु, बच्चों के साथ खेल ही रहा हॅू । ''

''चलो उतरो रे ! उधम-मस्ती नहीं चलेगी । पापा, सेहत का कुछ तो खयाल रखिए । आपने ब्लड प्रेशर की गोली ली ? '' यह मायके आई मिस्टर शर्मा की बिटिया अनुभूति की चिन्ताभरी आवाज है ।

.........................

डा. स्वाति तिवारी

पता ईएन 1/9 चार ईमली

भोपाल (म.प्र.)

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