१३नवम्बर ९७ की गुनगुनी सी दोपहर निश्चय ही शुभ थी जब महिलाओं की रचनात्मक उर्जा को एक नईदिशा ,नए आयाम देने के उद्देश्य से इंदौर जैसे महानगर मे अनेकों किटी पार्टियों वाले क्लबों एवं सामाजिक संस्थाओं से अलग एक सृजनात्मक अभिरुचि की संस्था के रूप मे इंदौर लेखिका संघ की नींव रखी .आज लगभग १३साल से यह संस्था निरंतर संचालित होरही है .संघ की उपलब्धियों में सबसे अहम् यह की वे जो केवल लिखने की इच्छा करती थी वे भी इसके बेनर तले आज जम कर लिख रही है .पत्र -पत्रिकाओं मे स्थापित लेखन कर रही है ।







आज जब साहित्य हाशिये पर जा रहा है .इलेक्ट्रोनिक मिडिया के
बड़ते प्रभाव मे जब आम आदमी की साहित्य मे रूचि कम होने का खतरा बना हुआ है ऐसे संक्रमण काल मे साहित्य मे रूचि जगाने कही उद्देश्य लेकर चले थे सबके सहयोग ,सगठनं की भावना ही सफलता के मूल मंत्र मेरची बसी है .इस दृष्टी से लेखिका संघ समृध है यही हमारे उद्देश्य की सार्थकता भी है --------------------------स्वाति तिवारी







संस्थापक ,इन्दोर लेखिका संघ







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सोमवार, 27 सितंबर 2010

इतिश्री
           चेतनाभाटी
 चेतनाजी लघुकथा का जाना पहचाना नाम हे हम यहाँ उनकी कुछ लघु कथाये दे रहे हे-संपादक







उन्हें विदा करने के बाद भी रवि-रीता की छवि आँखों से हटती न थी। काफी देर तो गेट पर खड़े हाथ हिलाते उन्हें जाते हुये, देखती रही फिर अंदर आकर सोफा, बैक ठीक किये,कुषन जमाये और चाय नाष्ते की कप प्लेटे उठाते हुये दरवाजे पर पड़े तिरछे पायदान को पैर से सीधे करते हुये किचन में आ गई। बचे हुये बिस्किट्स रेपर में लपेट कर डब्बे में डाले और बरतन सिंब में। और अखबार उठा कर लेट गई, बरामदे में पड़ी इजी चेयर पर। दोपहर में ही तो समय मिल पाता है कुछ लिखने-पढ़ने को, लेकिन नजरें अवष्य अखबार पर थी मगर दिमाग कहीं और।

कैसी तो जबरदस्त सुनामी आई थी, उनकी जिंदगी में कि देखते ही देखते सब गायब हो गया, जैसे कि कुछ था ही नहीं पानी ही पानी अंदर बाहर मन में आंगन में। आंखे गीली दिल भी भीगा।

रवि के पिताजी का अचानक ''देहान्त क्या हुआ उसकी तो मानों दुनिया ही उजड़ गई। वो ठाठ-बाट, रोब-दाब, ऐषो आराम सब गायब। मानों उन्हीं का रचा तिलिस्म था जैसे या माया जाल जादूगर का जो उन्हीं के साथ खत्म हो गया।

क्रिया कर्म आदि के कर्तव्य निवाह कर जब वह व्यापार-व्यवसाय सम्भालने अपने पिता के दफ्तर में आया और उनकी कुर्सी पर बैठा तो पता चला कम्पनी तो बड़े घाटे में है, लगभग दीवालिया होने की कगार पर।

पगड़ी की रस्म में जो पगड़ी उसके सिर पर रखी गई थी, वह उसे कांटों का ताज महसूस हुई। तो कहीं पिताजी भी तो इसी संदर्भ में अचानक ही ................उसे भी अपनी नैया डूबती जान पड़ी मगर जान बचाने को हाथ-पैर तो मारने ही थे। जल्दी-जल्दी उसने बहन की शादी निपटाई जैसे-तैसे और फिर सारी देन दारियाँ चुकाते-चुकाते तो पाई-पाई चुक गई। रत्न-आभूषण, बंगला, गाड़ी तक बिकते न देख सकी और माँ भी चल पड़ी, उसके पिता के पीछे। और वह अर्ष से फर्ष पर आ पड़ा।

शहर में जहाँ उसके कई बंगले थे और दर्जनों गाडियाँ, ढेरों नौकर-चाकर अब वहीं पर सिर पर एक अदद छत को तरस गया था। खैर कहीं से ढंूढ-ढांढ कर एक कम्पनी में नौकरी का जुगाड़ किया किराए के एक कमरे का भी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ जिंदगी जैसे-तैसे चलने लगी।

फिर उस शहर से हमारा भी स्थानांतरण हो गया और हम भी अपनी-अपनी जिंदगी की आपाधापी में खो गये।

बच्चे के रोने की आवाज सुनकर मैं चौंक पड़ी और घबरा कर इधर-उधर देखा तो एक मोटर सायकल को तेजी से जाते पाया। ''उफ !'' मारे घबराहट के अपनी धौंकनी की तरह चलती सांसों को काबू करते माथे का पसीना पोंछा - ''उफ! कैसे-कैसे उटपटांग हॉर्न लगवा लेते हैं लोग, संवेदनहीन कहीं के। दिल की धड़कने अब भी तेज थी। फिर से लेट गई वहीं आराम कुर्सी पर, थोड़ा पानी पीकर। शाम ढल रही थी, बच्चे स्कूल से लौट रहे थे। कुछ देर यूँ ही पड़े रहने के बाद फिर अखबार उठा लिया और उलटने-पलटने लगी यूँ ही।

सूबह से सारे गृह कार्य निपटा कर फुसर्त हुई ही थी कि, दोपहर में अचानक कॉल बेल बजने से चौंकी - ''अब कौन होगा ? सोचते हुये दरवाजा खोला तो रवि-रीता सामने थे।

''अरे आप ! आप लोग'' - ज्यादा देर नहीं लगी पहचानने में, हालांकि अर्सा हो गया था, मिले हुये।

''आइए-आइए, अंदर आइए, आज अचानक कैसे याद आन पड़ी हमारी'' - कहते हुये मैंने दरवाजा पूरा खोल दिया।

''यहाँ एक विवाह समारोह में सम्मिलित होने आये थे। सोचा आप लोगों से भी मिलते चलें'' - अंदर आकर सोफे पर बैठे हुये दोनों एक साथ बोल पड़े - '' और सुनाइए क्या हाल-चाल है ? भाई साहब कैसे हैं ? ''

''बस सब ईष्वर की कृपा है। आपके भाई साहब दफ्तर गये हुये हैं, अब शाम गये ही आयेंगे''- कहते हुये मैं पानी ले आई और टे्र उनके सामने रख दी।

उन्होंने पानी पी कर गिलास मेज पर रखा और बातों का आनंत सिलसिला चल पड़ा। इतने दिनों तक किसने क्या-क्या किया, किस पर क्या-क्या और किस तरह गुजरीसब विस्तार से बताने लगे। आखिर वर्षों बाद मिले घनिष्ठ पारिवारिक मित्र जो थे। घूम घाम कर बात बच्चों पर आ टिकी, जैसा कि होता ही है।

''और सुनाइये बच्चे कैसे हैं ? क्या कर रहे हैं ?''- मैंने पूँछा।

''बस यही एक राहत है कि तमाम मुष्किलों, कठिनाइयों के दौर के बावजूद बच्चे अच्छे निकले। पढ़-लिख कर दोनों जॉब में हैं'' - रीता बोली।

''उनकी पढ़ाई के लिये मुझे क्या-क्या नहीं करना पड़ा। रात-दिन मेहनत की, जुता रहा कोल्हू के बैल की तरह, पढ़ाई का खर्चा उठाने को, कितने पापड़ बेले''- अपनी पिछली कठनाईयाँ, बुरा दौर याद करते हुये रवि के तो आँसू ही छलक पड़े।

मैंने तुरंत ढाढस बंधाते हुये कहा - ''अरे, तो क्या हुआ अंत भला तो सब भला। आखिर इतने कठिन परिश्रम का, सब्र का फल भी तो मीठा मिला न। दोनों बच्चे अपनी लाइफ में सेटल हो गये और क्या चाहिये ? ''

''हाँ जी, यही कमाई है, हमारी जीवन भर की। दोनों अच्छी कम्पनी में लगे हैं एम.बी.ए. करने के बाद। अच्छे पैकेज मिल गये दोनों को। बेटा महीने के लगभग चालीस हजार कमाता है और बिटिया पच्चीस-तीस के बीच'' - रीता गर्व से बोली।

''अरे वाह! तब तो आप षिफ्ट कर गये होंगे ? उस एक कमरे वाले किराये के घर से जहां टॉयलेट तक कॉमन था'' - मैंने उत्साह से भर कर पूँछ लिया।

''नहीं अभी तो हम वहीं हैं। अब बच्चे तो दोनों चले गये अपने जॉब के कारण। अब हम दोनों ही तो हैं, तो काफी है, ठीक है अब क्या करना है। गुजर हो ही जाती है, उस एक कमरे में। पहले तो चार लोग रहते थे, अब हम दो ही हैं तो कोई कठिनाई नहीं। रवि अपना काम कर ही रहे हैं, मैं भी करती रहती हूँ घर में ही कुछ न कुछ व्यस्त रहने के लिये और कमाई भी हो ही जाती है, कुछ इस तरह''-रीता बोली।

''वह तो ठीक है, लेकिन अब जब दोनों बच्चे ठीक ठाक कमाने लगे हैं तो उन्हें मिल कर अपने माता-पिता के लिये एक मकान की व्यवस्था तो करनी चाहिये न आखिर इतना कमा रहे हैं दोनों। एक छोटा-मोटा फ्लेट तो दिलवा ही दें, ताकि आप लोग सलीके से तो बिता सकें शेष जीवन। कुछ तो कठिनाइयाँ कम हों आप लोगों की। इतना कमा रहे हैं तो क्या मुष्किल है ? आधी-आधी तनख्वाह भी हर महीने बचाई जा सकती है। अभी तो शादी भी नहीं हुई है दोनों की । तो इस तरह साल भर में एक छोटे फ्लेट के पैसे तो जमा हो ही सकते हैं - बातें करते-करते मैं चाय नाष्ते की टे्र सजा लाई थी तो उनकी ओर बढ़ा दी।

प्लेट से बिस्किट उठाते हुये, रीता बोली- '' नहीं, अभी कहाँ बचा पाते हैं, उनके अपने भी तो खर्चे हैं ? ''

आश्चर्य से मेरी आँखे फटी जा रही थीं -''इतना वेतन ! और बचा नहीं पाते ? आखिर इतना-कितना खर्च कर सकते हैं, अकेले ? जबकि अभी कोई पारिवारिक जिम्मेदारी भी नहीं है। विवाह तो हुआ नहीं है''।

''नहीं तो कम्पनी के हिसाब से मेंटेन भी तो करना पड़ता है बेटे को, फ्लाइट से आना-जाना, पहनावा, रहन-सहन आदि तो खर्च होता ही है। बिटिया तो आधी तनख्वाह कपड़ों पर ही खर्च कर देती है। अब हम तो कुछ कर पाये नहीं। पढ़ाई का खर्च ही मुष्किल से वहन कर पाते थे बाकी तो जैसे-तैसे ही चलता था। कभी एक जिन्स तक नहीं दिलवाई, बच्चों को तो अब वे स्वयं अपनी इच्छाएं पूरी कर रहे हैं''। - रीता ने बच्चों का पक्ष लिया, जैसा कि साधारणतया मांए करती हैं, मगर लाचारी उनके चेहरे पर टपकी पड़ती थी।

''वह तो ठीक है कि वे अपनी इच्छाएं पूरी करें, लेकिन माता-पिता का भी तो ख्याल रखें जिन्होंने अपनी सारी जिन्दगी होम कर दी, उनके जीवन को संवारने में'' मैं कहना तो चाहती थी मगर फिर कहा नहीं सोचा जब वे लोग खुष हैं ऐसे ही तो हमें भी क्या करना है ? वे जाने उनके बच्चे जानें, तो उनकी हाँ में हाँ मिलाने लगी- ''हाँ, जी हाँ बच्चों की भी तो अपनी इच्छाएं हैं''।

इस बीच रवि बिल्कुल चुप बैठे रहे। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। फिर कुछ इधर-उधर की बातें हुई और वे दोनों चले गये, लेकिन मैं उलझ कर रह गई।

''ट्रिंग े े े े३ण्ण्'' कॉलबेल बजी और ''ये'' आ गये।

''रवि और रीता आये थे। ''मैंने तुरंत ही समाचार दिया।

''अच्छा! चले भी गए ! रूके नहीं मेरे लिए ? कैसे हैं दोनों ? ''इन्होंने'' हर्ष मिश्रित आष्चर्य के साथ प्रष्नों की झड़ी लगा दी।

''वे'' कपड़े बदलने लगे और मैं उनके लिये चाय बनाते हुये सब विस्तार से बताने लगी। अंत में चाय-नाष्ता टेबल पर लगाते हुये बोल ही पड़ी - '' पता है अब भी उसी किराये के एक कमरे में रह रहे हैं, उनकी कठिनाईयों का अंत नहीं। इतनी मुष्किलों से बच्चों का जीवन संवारा और बच्चे हैं कि कुछ सोचते ही नहीं उनके लिये बस अपने ही शौक पूरे करने में लगे हैं। अरे कम से कम एक ठीक-ठाक मकान की व्यवस्था तो कर ही दें, ताकि कुछ तो आराम मिले माता-पिता को। कोई छोटा-मोटा फ्लेट ही सही, न सही अपना किराये का ही सही, लेकिन वे तो .................''।

''अरे तुम भी क्या ले बैठी ! अब जमाना ही ऐसा है, उदारवाद और उपभोक्तावाद का ! यानी उदार बनो अपने लिये और खूब उपभोग करो। उदार भोग स्वयं के प्रति। ''कुर्सी खिसका कर ''ये'' बैठते हुये बोले।

''लेकिन ..........मैंने फिर कोषिष करनी चाही''।

''लेकिन-तेकिन कुछ नहीं। किस दुनिया में है मेड़म आप ? ये कोई आपके प्रेमचंद के ईदगाह की दुनिया नहीं है कि, जब बच्चा अपना पेट काटकर मौज-मजे भूल कर मेले में खर्च करने को मिले पैसों से एक चिमटा खरीद लाए अपनी दादी की फिक्र करते हुये कि, रोटी सेंकते समय उनके हाथ जल जाते हैं। बच्चे अब इतने मासूम नहीं रहे। वे सबसे पहले अपने मौज-मजे के लिये सोचते हैं, फिर उसी मौज में ऐसे डूबते हैं कि किसी और के लिये सोचने तक का समय नहीं रहता। आज-कल तो बच्चे पहले तो खूब खर्च करवा कर पढ़ते जाते हैं, ये भी करना है वो भी करना है, कॉलेज भी कोचिंग भी और भी न जाने क्या-क्या और फिर जब सब हो जाये तो निकल लेते हैं। अब्रॉड नहीं तो यहीं कहीं दूरस्थ शहर में, और माता-पिता खड़े देखते ही रह जाते हैं, ठगे से हकबकाए से। पहले की तरह थोड़े ही कि जल्दी से जल्दी पढ़ाई पूरी कर बच्चे कुछ बन जाना चाहते थे, ताकि माता-पिता और घर परिवार की देखभाल कर सकें। अरे यहाँ तक कि स्वयं को भी झोंक देते थे। अब हमारे बरेली बाले फूफा को ही स्वयं को ही लो जो स्कूल की पढ़ाई के बाद ही फौज में भर्ती हो गये, सिर्फ इसलिये कि, उनकी सारी तनख्वाह माता-पिता को मिल सके। अपनी जान ही दांव पर लगा देते थे। उस समय तो युद्ध भी खूब होते थे, लेकिन नहीं, चिंता थी तो बस घर परिवार की माता-पिता की। अब तो बच्चे बस मातृ-पितृ दिवस पर ही एकाध कार्ड या अखबार द्वारा संदेष देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं'' - ''इन्होंने'' चाय का घूँट भरा मुझे लम्बा डोज पिला कर     



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11 टिप्‍पणियां:

  1. ब्‍लॉग के पहले संदेश में ही वर्तनी की गलती है, उसे दुरूस्‍त करें। रचनाकारों होना चाहिए और आपने लिख दिया है 'रचना करो' खैर पुरूष आपके ब्‍लॉग को पढ़ तो सकते हैं,
    http://chokhat.blogspot.com

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  2. Adarneeya Swati ji,
    Hindi blog jagat men apka svagat karate huye prasannata ho rahee hai.Ummed hai is group blog men kafee kuchh achchha padhane aur seekhane ko milega.
    Aur han kripaya word varification hata den to kament dena asan rahega.
    hardik shubhkamnayen.
    Poonam

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  3. बहुत अच्छा प्रयास। आप अपने मकसद में कामयाब हों। शुभकामनाएं।

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  4. उद्देश्य अच्छा है और उसके लिए शुभकामनाएं लेकिन वर्तनी की काफी गलतियां हैं..कुछ मैं बता रही हूं..शुरू के ही संदेश में...
    रचनाकरों-रचनाकारों
    मिडिया-मीडिया
    दृष्टी-दृष्टि
    समृध-समृद्ध

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